प्रकृति में सौंदर्य है, संतुलन है,
हर रंग, हर ऋतु में एक अनुशासन है।
यह ईश्वर की छवि दिखाती है,
एक आदर्श, एक पूर्णता का आभास कराती है।
पर साथी, देख जरा क़रीब से,
यह भी अधूरी, अपूर्ण, बिखरी हुई है।
जिस तरह मेहनतकश के हाथ में छाले,
बनते हैं संघर्ष की लिखावट की स्याही।
धरती दरकती है, तूफान आते हैं,
सूखा भी पड़ता है, बाढ़ भी लहराती है।
यह हमें सिखाती है—कोई भी छवि,
असली नहीं होती, सिर्फ़ एक प्रतिबिंब होती है।
जिस तरह प्रकृति असंतोष से बदलती है,
वैसे ही मेहनतकशों का संघर्ष पलटता है।
हम भी इस दुनिया की तस्वीर को तोड़ेंगे,
नया सूरज उगाकर, अंधेरे को मोड़ेंगे।
हम प्रकृति की तरह न झुकेंगे,
न ठहरेंगे, न थकेंगे, न झूठी पूर्णता में बहकेंगे।
हम इसे हथौड़े से आकार देंगे,
हर अन्याय को राख कर,
इंकलाब की नई मिट्टी में नया संसार देंगे।