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Sunday, September 7, 2008

आह्वान


इंसान अगर बनना है, तो वह नज़र पैदा कर,
ज़ुल्म-ओ-सितम के दर पे कभी न झुके, वह सर पैदा कर।
सदियों से झुकी हैं ये कमरें, अब और झुकने न देंगे,
जो मोड़ दे तक़दीर का पहिया, वो असर पैदा कर।

संगठित हो लड़ने के सिवा और कोई रास्ता नहीं,
शोषित आवाम के दिलों में ये समझ इस क़दर पैदा कर।
अब मालिक-ओ-राजा के दस्तरख़ान नहीं भरने देंगे,
अब ईंट से ईंट बजा देंगे, वो हुनर पैदा कर।

विरोध से विद्रोह तक का सफ़र हम तय करके रहेंगे,
अपने हक़ के लिए जो मर मिटे, वो जिगर पैदा कर।
हर बंद दरवाज़े को तोड़ने का हौसला चाहिए,
हर जंजीर को गलाने की आग उधर पैदा कर।

फिर न बहे कोई ख़ून की नदी धर्म-जाति के नाम पर,
हैवानों के दिलों में तू दहशत इस क़दर पैदा कर।
जो मज़हब को हथियार बनाए, वो मज़हब हमारा नहीं,
अब नफ़रत के सौदागरों के ख़िलाफ़ कहर पैदा कर।

जहालत में क्यों है सिर्फ़ मेहनतकशों की ही ज़िंदगी?
ज़ुल्मी-व्यवस्था पे तू ऐसे प्रश्न निरंतर पैदा कर।
ये शिक्षा, ये इज़्ज़त, ये धरती सिर्फ़ अमीरों की नहीं,
अब हर ग़रीब के घर में भी इक शम्स-ए-सहर पैदा कर।

कटघरे में खड़ी है थैलीशाहों, ज़मींदारों की ये जुल्मी हुकूमत,
मिटा दे जो ये ज़ुल्मी-व्यवस्था, तू ऐसा तूफ़ानी समर पैदा कर!
जो हथौड़ा उठाए, जो हल भी संभाले,
अब हर हाथ में वो दमदार ख़बर पैदा कर!

एम के आज़ाद

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