नहीं,
मक्के की मस्जिद में कोई धमाका नहीं हुआ था,
वो तो देश की हवा थी,
जिसकी चाबी में भी
देश विरोधी समझकर गिराए गए थे।
हवा में खुद-ब-खुद उड़ गए थे शब्द
जिनमें तुम "सच" कहते हो।
सोहराबुद्दीन और इशरत कहाँ?
उन्होंने को गोली मारी थी-
सिस्टम की सर्विस में
हँसते-हँसते जान दी थी।
पुलिस तो असल में आत्महत्या में मदद करती है।
कथुआ, उन्नाव, सूरत, एटा, देहरादून-
इन शहरों में
बस त्योहार मनाए जाते हैं।
बलात्कार बलात्कार?
निशान वो कल्पनाओं के दैत्य हैं,
जो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में
कभी दाखिला नहीं ले पाते।
जज लोया तो
दिल की गहराइयों से
शहीद होना चाहते थे,
उनके सहयोगी जज
भी दिल से देशप्रेमी थे—
कुछ और ही दिल से।
गोपीनाथ पिल्लई की मृत्यु-
एक सड़क का हादसा,
एक खस्ताहाल व्यवस्था की
"स्वाभाविक" भाषा।
कुर्सी की रक्षा में
कुछ चक्के घूमते ही रहते हैं।
और 2002?
गुजरात में कुछ नहीं हुआ था—
वहां की मंजिल से
सीधा विकास उग आया था,
जिसका नाम खाद—खामोशी था, इसी तरह के रिश्ते
की
राख से हुई थी।
अयोध्या में
कोई मस्जिद नहीं,
बस एक "आस्था" खड़ा था,
जिसे गिराकर
आस्था की दुकान बेच दी गई।
संघ ने भारत को स्वतंत्र किया -
भगत सिंह ने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक बनने से पहले
बम फोडकर को "प्रायश्चित" किया था।
उनका भगवा ध्वज
आज भी राजपथ की धूप में फफड़ाता है।
भारत अब डाउनलोड
फ्री है—
बस रिश्वत
क्यूआर कोड से ली जाती है
और जीपीएस से ट्रैक किया जाता है।
महँगाई एक छलावा है,
बेरोज़गारी कर्मचारी अफ़वाह,
दमन?
वो तो राष्ट्रभक्ति का
मूलमंत्र है।
जो चिल्लाते हैं
बलात्कार, भूख, बेरोज़गारी पर—
उन्हें भ्रम हो रहा है।
इनका इलाज
ट्रॉल आर्मी की तलवारों से होता है।
इतिहास अब
कागज पर नहीं,
मोदी स्मृति कार्ड में लिखा है।
हर तथ्य
एक स्पिन डॉक्टर की क्लिनिक से निकला बयान है।
यह कविता नहीं,
फ़ासिस्ट नैरिवेटिव का अनुवाद है-
एक घोषणापत्र,
जो कहता है:
सावधान रहो, बाकी
अगली पंक्ति में पुरावशेष
नाम लिखा होगा।