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Thursday, April 17, 2025

फासिस्ट नैरेटिव - एक समवेत कविता

 


नहीं,
मक्के की मस्जिद में कोई धमाका नहीं हुआ था,
वो तो देश की हवा थी,
जिसकी चाबी में भी
देश विरोधी समझकर गिराए गए थे।

हवा में खुद-ब-खुद उड़ गए थे शब्द
जिनमें तुम "सच" कहते हो।

सोहराबुद्दीन और इशरत कहाँ?
उन्होंने को गोली मारी थी-
सिस्टम की सर्विस में
हँसते-हँसते जान दी थी।
पुलिस तो असल में आत्महत्या में मदद करती है।

कथुआ, उन्नाव, सूरत, एटा, देहरादून-
इन शहरों में
बस त्योहार मनाए जाते हैं।
बलात्कार बलात्कार?
निशान वो कल्पनाओं के दैत्य हैं,
जो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में
कभी दाखिला नहीं ले पाते।

जज लोया तो
दिल की गहराइयों से
शहीद होना चाहते थे,
उनके सहयोगी जज
भी दिल से देशप्रेमी थे—
कुछ और ही दिल से।

गोपीनाथ पिल्लई की मृत्यु-
एक सड़क का हादसा,
एक खस्ताहाल व्यवस्था की
"स्वाभाविक" भाषा।
कुर्सी की रक्षा में
कुछ चक्के घूमते ही रहते हैं।

और 2002?
गुजरात में कुछ नहीं हुआ था—
वहां की मंजिल से
सीधा विकास उग आया था,
जिसका नाम खाद—खामोशी था, इसी तरह के रिश्ते
की
राख से हुई थी।

अयोध्या में
कोई मस्जिद नहीं,
बस एक "आस्था" खड़ा था,
जिसे गिराकर
आस्था की दुकान बेच दी गई।

संघ ने भारत को स्वतंत्र किया -
भगत सिंह ने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक बनने से पहले
बम फोडकर को "प्रायश्चित" किया था।
उनका भगवा ध्वज
आज भी राजपथ की धूप में फफड़ाता है।

भारत अब डाउनलोड
फ्री है—
बस रिश्वत
क्यूआर कोड से ली जाती है
और जीपीएस से ट्रैक किया जाता है।

महँगाई एक छलावा है,
बेरोज़गारी कर्मचारी अफ़वाह,
दमन?
वो तो राष्ट्रभक्ति का
मूलमंत्र है।

जो चिल्लाते हैं
बलात्कार, भूख, बेरोज़गारी पर—
उन्हें भ्रम हो रहा है।
इनका इलाज
ट्रॉल आर्मी की तलवारों से होता है।

इतिहास अब
कागज पर नहीं,
मोदी स्मृति कार्ड में लिखा है।
हर तथ्य
एक स्पिन डॉक्टर की क्लिनिक से निकला बयान है।

यह कविता नहीं,
फ़ासिस्ट नैरिवेटिव का अनुवाद है-
एक घोषणापत्र,
जो कहता है:

सावधान रहो, बाकी
अगली पंक्ति में पुरावशेष
नाम लिखा होगा।



Sunday, March 9, 2025

भूख का सफर


रात कहर बन के आई,
चार घंटों में सब कुछ मिटाई।
जो शहर बसाए थे सपनों से,
अब रेत के महल गिराई।

सड़कें भर गईं पैरों से,
थकान के निशान लिए,
मीलों मील सफर पे निकले,
खाली पेट, अरमान लिए।

हवा में थी सन्नाटे की चीख,
राहों में था दर्द बिछा,
कोई बच्चा भूख से बिलखा,
कोई माँ लहू-लुहान हुई।

महल रोशनी में झिलमिलाए,
पर झोपड़ियाँ बुझ गईं,
सरकार के फ़रमान ने फिर,
लाशों की गिनती बढ़ा दीं।

कोरोना से लड़ने की देरी,
और लापरवाही थी भारी,
फिर तुगलकी फरमान चला,
मौत की घाटी में जनता उतारी।

हमने माँगा रोटी, पानी,
मिला डंडा, गालियाँ,
हमने माँगी राहत थोड़ी,
मिला मौत का रास्ता खाली।

पर देखो, इतिहास गवाह रहेगा,
ये जुल्म, ये भूख की मार,
हर क़दम जो हमने उठाया,
वो लिखेगा नई पुकार।

अब भूख नहीं, इंकलाब जलेगा,
अन्याय का ये अंधेरा ढहेगा,
हर हाथ में मशाल होगी,
हर आँख में नया सवेरा उगेगा!

सच की रौशनी

 

एक औरत थी, संतरे बेचती थी,
धूप में, कूड़े में, धूलि पर छींटाकशी थी।
उसकी मेहनत में ईमान था,
शहर के कुछ लोग फिर भी परेशान थे।

किसी ने कहा- "ठग है ये औरतें!"
किसी ने कहा- "बदज़ुबान है!"
पर सच्चाई बस इतनी थी कि
वह मुफ़्त में फल नहीं बांटती थी।

किसी ने कहा- "अहंकारी है!"
किसी ने कहा- "जिद्दी औरतें हैं!"
सच तो यह था कि
वह लोगों के साथ खड़ा नहीं था।

कुछ ने उसे बदनाम कर दिया,
क्योंकि वह किसी से नहीं डरता था,
किसी भी कलाकार के पुतले के प्रेम को स्वीकार नहीं करता था,
किसी भी पुतले की खरीद-फरोख्त से इनकार नहीं करता था।

शहर में रोशनी थी, पर अंधी जगह,
हर किसी से सुना था,
किसी दिल से नहीं देखा था,
क्योंकि सच्चाई देखने के लिए
दिल में सच का पता चला था।

पर वह औरतें हारी नहीं,
वह संतरे बेचती रही,
अपनी मेहनत, अपनी सच्चाई,
और अपने कमरे के साथ।

क्योंकि सच को सच बताने के लिए
हमें पहले खुद के अंदर सच को जलाना है,
और जिसने दिल में सच संजोया है,
वही इस दुनिया की रोशनी को देखेगा।

केम के आज़ाद

संगिनी: श्रम और संघर्ष की दोस्त

 

वह कोई परी नहीं, कोई देवी नहीं,
वह संगिनी है, मेरे श्रम की दोस्त,
जो संगी है वहीं रहती है जब दुनिया घूमती है,
मेरे शिष्यों के अनमोल हाथों की रूढ़ियों में अपना हक है।

वह मेरी ताक़त नहीं,
बल्कि मेरी थकान का सहारा है,
जब मेहनत की धूप उगलती है,
तो उसकी छवि मुझे सहारा देती है।

वह मर्दानगी को निखारने नहीं आई,
न किसी राजा की रानी बनने,
वह संघर्ष की आँधी में कंधे से कंधा पुरानी
क्रांति का परचम थमाने आई।

उनके प्रेम में कोई उपहार नहीं,
डीलबाज़ी नहीं,
यह भागीदारी है-
मेरे सपने का हिस्सा, मेरी रोटी का हिस्सा,
मेरे हर किसी पल का पूरा जवाब।

वह किसी महल में पलने वाली रानी नहीं,
न ही चौखट पर छात्रावास वाली, छाया
वह किराए पर, किराए पर, किराए पर
, बारातों में
मेरे छोटे पैमाने पर मेरी अपनी कमाई हुई है।

और मैं भी कोई सरपरस्त नहीं,
न कोई पहरेदार, न कोई मालिक,
मैं बस एक दोस्त हूं,
जो अपने सपनों की इज्ज़त करता है,
जो अपनी उड़ान को अपना कंधा देता है।

हम साथ हैं,
क्योंकि हमारा रिश्ता मजदूरों के सिक्कों से पका है,
क्योंकि हमारा प्यार संघर्ष की मिट्टी से गढ़ा है।

गुलामी तो तेरी इश्क़ की थी

 गुलामी तो तेरी इश्क़ की थी,

वरना ये दिल कल भी सुल्तान था,

आज भी सुल्तान है.

पर अब इश्क़ से आगे देख लिया हमने,

अब मोहोब्बत नहीं, क्रांति का अरमान है।


मंज़िल दूर सही, क़दम नहीं रुकेंगे,

जो रोटियां छीनते हैं, उनका खाता शेष।

जो हमारे ताले पर महल के ताले हैं,

अब उनका इंस्टिट्यूट हिल जाएगा।


हम हैं वो, जो रातों में सर्वे कर रहे हैं,

सुबह की खाकी में इंकलाब बोते रहे।

हम वो हैं,प्रोग्राम वर्क से दुनिया चलती है,

किसी और की भर्ती पर क्लिक करें।


एम के आज़ाद

Wednesday, March 5, 2025

संघर्ष की जड़


हमें नारा दिया था, हमें रसायनिक पदार्थ कहा जाता था,
पर हम मिट्टी में दबे बीज थे,
हर वार पर और गहरे धंसे,
हर चोट पर और वर्गीय धंसे थे।

फार्मास्युटिकल्स को खेत बनाया गया,
संघर्ष की मिट्टी में प्याज ओगै,
मटर, लोकी, काली मिर्च, खरबुज़े,
हर आक ने क्रांति की सुगंध दी।

हम लंगरों की रोटियों में इंकला गुंधते हैं,
हमारी हंसी में धरती का संगीत हैं,
हमारे हाथों की रोटियों में इंकला बंधते हैं

हम दिल्ली की सड़कों को बाग बना देंगे,
हम फर्मों को खेत बना देंगे,
हमारे हल के रूझान बताते हैं-
राजहथ को सिर झुकाना ही होगा।

तुमने जो आग सलगाई थी,
हमने उसे रोशनी बना ली,
तुमने जो दीवार शिखर की थी,
हमने उसे पार कर लिया।

याद दिलाया-
हम अन्नदाता हैं, धरती के संत हैं,
हमें मूर्तिमान करने वाले
कभी राजसिंहासन नहीं बचाएंगे!

एम के आज़ाद

Friday, February 28, 2025

प्रकृति: इंकलाब की तस्वीर


 प्रकृति में सौंदर्य है, संतुलन है,

 हर रंग, हर ऋतु में एक अनुशासन है।

 यह ईश्वर की छवि दिखाती है,

 एक आदर्श, एक पूर्णता का आभास कराती है।


पर साथी, देख जरा क़रीब से,

 यह भी अधूरी, अपूर्ण, बिखरी हुई है।

 जिस तरह मेहनतकश के हाथ में छाले,

 बनते हैं संघर्ष की लिखावट की स्याही।


 धरती दरकती है, तूफान आते हैं,

 सूखा भी पड़ता है, बाढ़ भी लहराती है।

 यह हमें सिखाती है—कोई भी छवि,

 असली नहीं होती, सिर्फ़ एक प्रतिबिंब होती है।


 जिस तरह प्रकृति असंतोष से बदलती है,

 वैसे ही मेहनतकशों का संघर्ष पलटता है।

 हम भी इस दुनिया की तस्वीर को तोड़ेंगे,

 नया सूरज उगाकर, अंधेरे को मोड़ेंगे।


 हम प्रकृति की तरह न झुकेंगे,

 न ठहरेंगे, न थकेंगे, न झूठी पूर्णता में बहकेंगे।

 हम इसे हथौड़े से आकार देंगे,

 हर अन्याय को राख कर,

 इंकलाब की नई मिट्टी में नया संसार देंगे।